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विवाह मिलान में विचारणीय 10 महत्वपूर्ण तत्व

विवाह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य संस्कार है। विवाह ही एक युवक व युवती को दंपति के रूप में साथ रहने की की वैधता व सामाजिक मान्यता प्रदान करता है। विवाह के पश्चात अनजाने परिवारों(कुलों) के दो सदस्य दाम्पत्य जीवनरूपी नौका में सवार होते हैं। जीवन भर दोनों को एक-दूसरे के पूरक के रूप में साथ निभाते हुए विभिन्न प्रकार के दायित्वों का वहन करना होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी में शारीरिक, मानसिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक तालमेल हो।

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मनुस्मृति के अनुसार विवाह के आठ भेद बताए गए हैं-

  • ब्रह्मा विवाह- माता-पिता द्वारा गुणी वर तलाश करके कन्या का विवाह करना।
  • दैव विवाह- यज्ञ के समय पुरोहित को कन्यादान करना।
  • आर्ष विवाह- किसी विवाह के इच्छुक ऋषि को एक जोड़ी बैल व गाय के बदले कन्यादान करना।
  • प्राजापत्य विवाह- धर्म प्रसार हेतु कन्या का विवाह करना।
  • असुर विवाह- कन्या के पिता को धन देकर विवाह करना।
  • गान्धर्व विवाह- पारस्परिक प्रेम के फलस्वरूप वर-कन्या द्वारा वरमाला डालकर विवाह करना। वर्तमान समय में किया जाने वाला प्रेम विवाह इसी श्रेणी में आता है।
  • राक्षस विवाह- युद्ध अथवा बलपूर्वक हरणोपरान्त विवाह करना।
  • पैशाच विवाह- बिना विवाह कन्या को पत्नी बनाकर रखना।
  • प्रथम चार प्रकार के विवाह उत्कृष्ट माने गए हैं, शेष में से असुर व गान्धर्व विवाह निकृष्ट तथा अंतिम दो राक्षस एवं पैशाच विवाह अधम माने गए हैं। दैव, आर्ष, प्राजापत्य तथा राक्षस विवाह अब नही होते। सामान्य विवाह ब्रह्मा विवाह की श्रेणी में आता है। इसी प्रकार का विवाह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। दाम्पत्य जीवन सुखद, सरस, स्नेहपूर्ण एवं सफल हो इसके लिए यह आवश्यक है कि पति व पत्नी के शारीरिक गुणों, स्वभाव, प्रकृति, विचारधारा, मनोवृति, मान्यताओं, आस्था तथा जीवनमूल्यों में समानता हो। भावी पति-पत्नी में सुखद तालमेल बना रहे, इसी उद्देश्य से विवाह से पूर्व इसका अनुमान लगाना आवश्यक है। इस हेतु ज्योतिष विज्ञान एक बहुत बड़ा संबल है। यह ज्योतिष विज्ञान ही है जो वर-वधू के भावी तालमेल का पूर्वानुमान विवाह से पूर्व ही लगा सकता है। यह विद्या हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की अनुपम देन है। इसी कारण विवाह से पूर्व वर-वधू के गुण व अवगुणों के तालमेल की जांच करने हेतु जन्मकुंडलियों के मिलान की व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। नवविवाहित वर-वधू का दाम्पत्य जीवन मधुर एवं सफल रहेगा अथवा कटु या असफल, इसी चिंता से दोनों ही पक्ष पीड़ित रहते हैं। इसलिए विवाह से पूर्व वर तथा कन्या की जन्मकुंडलियों के मिलान द्वारा भावी दाम्पत्य जीवन की शुभाशुभता का पूर्वानुमान लगाया जाता है। प्राचीन ऋषि-महाऋषियों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ मापदंड तय किए हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-

    1. दिन(तारा) कूट– यह मिलान वर-वधू के आयुर्दाय व स्वास्थ्य को दर्शाता है। पहला तारा जन्म, दूसरा सम्पत, तीसरा विपत, चौथा क्षेम, पाँचवा पातक, छठा साधक, सातवां वेध, आठवां मैत्र, और नवां अतिमित्र के नाम से जाना जाता है। 1,3,5,7 तारा अशुभ और 2,4,6,8,9 तारा शुभ होते हैं। उत्तर भारत में पहला तारा भी शुभ माना जाता है जबकि दक्षिण भारत में शुभ नहीं माना जाता है।

    2. गण कूट– यह मिलान वर-वधू के जीवन में परस्पर स्वभाव, खुशियाँ व समृद्धि को दर्शाता है।

  • देव गण का अर्थ स्वाभिमान, अच्छाई, श्रद्धा, दानशीलता है। अश्वनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, हस्त, स्वाति, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, और रेवती नक्षत्र का देव गण है।
  • मनुष्य गण का अर्थ अच्छे और बुरे गुणों का मिश्रण है। भरणी, आर्द्रा, रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का मनुष्य गण है।
  • राक्षस गण का अर्थ, संकीर्णता, स्वार्थीपन, द्वेष, अनिष्ट है। चित्रा, अश्लेषा, मघा, मूल, विशाखा, शतभिषा, धनिष्ठा, कृतिका और ज्येष्ठा नक्षत्र का राक्षस गण है।
  • देव को देव से, मनुष्य को मनुष्य से और राक्षस को राक्षस से, राक्षस गण के वर को देव या मनुष्य गण की कन्या, मनुष्य या राक्षस, वर को देव कन्या, और मनुष्य कन्या को देव
  • गण के वर से मिलाएं। राक्षस कन्या के लिए देव या मनुष्य वर से विवाह वर्जित है|
  • 3. महेंद्र कूट– यह संतान के द्वारा भाग्य वृद्धि को दर्शाता है तथा दंपति को अच्छी उन्नति व आयुर्दाय प्रदान करता है। कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनें। गिनती के पश्चात् यदि 4,7,10,13,16,19,22 या 25 आता है तो यह शुभ माना जाता है।

    4. स्त्री दीर्घ कूट- यह सभी प्रकार की समृद्धि और धन-संपति देता है। कन्या के नक्षत्र से गिनने पर वर का नक्षत्र 13 के बाद होना चाहिए। यदि राशि कूट और ग्रह मैत्री मिलान सही है तो इसकी उपेक्षा की जा सकती है।

    5. योनि कूट– यह रति और शारीरिक आवश्यकता से संबंधित मिलान है जो एक-दूसरे के प्रति प्रेम और रति के रुझान को दर्शाता है। प्रत्येक नक्षत्र का एक पशुवत गुण होता है। इसका आधार ऐसे पशुओं की मानसिक आदतें और स्वभाव का एक जैसा होना और आपस में सामंजस्य होना है।

    6. राशि कूट– यह मूल रूप से भकूट का ही विचार है, लेकिन उत्तर भारतीय पद्धति से कुछ भिन्नता है। वहां राशियों में 6-8, 5-9, 2-12 संबंध बने तो वर्जित है। परंतु वहां राशियों में 3-11, 4-10 को शुभाशुभ श्रेणी में रखा है। दक्षिण भारत पद्धति में इसका विचार इस प्रकार है-

  • वर की राशि कन्या की राशि से दूसरी हो अर्थात उनमें 2-12 का संबंध बने तो मृत्यु संभव है। इसके विपरीत वर की राशि कन्या से बारहवीं हो तो आयु की रक्षा होती है।
  • इसी तरह 3-11 संबंध में वर की राशि तीसरी हो तो दुःख और ग्याहरवीं हो तो सुख होता है।
  • वर की राशि कन्या से चौथी हो तो दरिद्रता और दसवीं हो तो धनवृद्धि समझें।
  • वर की राशि कन्या की राशि से पाँचवीं हो तो वैधव्य और नवीं तो शुभ रहता है।
  • वर की राशि कन्या की राशि से छठी हो तो संतान हानि और आठवीं हो तो संतान होती है।
  • दोनों की राशि में समसप्तक बने अर्थात दोनों की राशियां एक-दूसरे से परस्पर सातवीं हो तो शुभ माना जाता है।
  • 7. ग्रह मैत्री(राशीश) कूट– यह संतति की संभावनाओं, मानसिक गुणों और एक-दूसरे के प्रति भावनाओं को दर्शाता है। यदि ग्रह मैत्री नही होती है तो दोनों कुंडलियों में चंद्रमा के नवांश स्वामियों से मैत्री का विचार करना चाहिए। यदि चन्द्रमा के नवांश स्वामी परस्पर मित्र हो तो यह दोष समाप्त हो जाता है।

    8. वश्य कूट– यह दंपति के मध्य प्रेम व उत्कंठा तथा एक-दूसरे के प्रति आकर्षण और नियंत्रण को दर्शाता है। प्रत्येक राशि की वश्य राशियाँ इस प्रकार से है-

  • मेष के लिए सिंह व वृश्चिक वश्य राशियाँ हैं|
  • वृष के लिए कर्क व तुला वश्य राशियाँ हैं|
  • मिथुन के लिए कन्या वश्य राशि है|
  • कर्क के लिए वृश्चिक व धनु वश्य राशियाँ हैं|
  • सिंह के लिए तुला वश्य राशि है|
  • कन्या के लिए मिथुन वश्य राशि है|
  • तुला के लिए कन्या व मकर वश्य राशियाँ हैं|
  • वृश्चिक के लिए कर्क वश्य राशि है|
  • धनु के लिए मीन वश्य राशि है|
  • मकर के लिए मेष व कुंभ वश्य राशियाँ हैं|
  • कुंभ के लिए मेष वश्य राशि है|
  • मीन के लिए मकर वश्य राशि है|
  • 9. रज्जू कूट– यह वैवाहिक जीवन के काल का निर्णय करता है। वर-वधू के जन्म नक्षत्रों को एक ही रज्जू में नहीं होना चाहिए।

  • सिर रज्जू- पति की मृत्यु देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र मृगशिरा, चित्रा व धनिष्ठा हैं।
  • कंठ रज्जू- पत्नी की मृत्यु देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र रोहिणी, आर्द्रा, हस्त, स्वाति, श्रवण और शतभिषा हैं।
  • नाभि रज्जू- संतान की मृत्यु देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र कृतिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढा और पूर्वाभाद्रपद हैं।
  • उरू रज्जू- निर्धनता देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र भरणी, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा, पूर्वाषाढा और उत्तराभाद्रपद हैं।
  • पाद रज्जू- भौगौलिक दूरी व अंतहीन भटकाव देता है। इसमें आने वाले नक्षत्र अश्वनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती हैं।
  • 10. वेध कूट- नक्षत्रों के कुछ जोड़ों का मिलान निषेध है। ऐसे जोड़े हैं

  • अश्वनी-ज्येष्ठा
  • भरणी-अनुराधा
  • कृतिका-विशाखा
  • रोहिणी-स्वाति
  • आर्द्रा-श्रवण
  • पुनर्वसु-उत्तराषाढा
  • पुष्य-पूर्वाषाढा
  • अश्लेषा-मूल
  • मघा-रेवती
  • पूर्वाफाल्गुनी-उत्तराभाद्रपद
  • उत्तराफाल्गुनी-पूर्वाभाद्रपद
  • हस्त-शतभिषा
  • मृगशिरा-धनिष्ठा
  • किसी भी वर-वधू के नक्षत्रों का उपरोक्त जोड़ों में होना वर्जित है।

    विशेष नोट– उपरोक्त मिलान मुख्यता नक्षत्र व राशि पर आधारित है। इसके साथ-साथ वर-वधू के विवाह से पूर्व उनके ग्रहों का परस्पर मिलान करना भी अत्यंत आवश्यक है।

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