विवाह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य संस्कार है। विवाह ही एक युवक व युवती को दंपति के रूप में साथ रहने की की वैधता व सामाजिक मान्यता प्रदान करता है। विवाह के पश्चात अनजाने परिवारों(कुलों) के दो सदस्य दाम्पत्य जीवनरूपी नौका में सवार होते हैं। जीवन भर दोनों को एक-दूसरे के पूरक के रूप में साथ निभाते हुए विभिन्न प्रकार के दायित्वों का वहन करना होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी में शारीरिक, मानसिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक तालमेल हो।
प्रथम चार प्रकार के विवाह उत्कृष्ट माने गए हैं, शेष में से असुर व गान्धर्व विवाह निकृष्ट तथा अंतिम दो राक्षस एवं पैशाच विवाह अधम माने गए हैं। दैव, आर्ष, प्राजापत्य तथा राक्षस विवाह अब नही होते। सामान्य विवाह ब्रह्मा विवाह की श्रेणी में आता है। इसी प्रकार का विवाह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। दाम्पत्य जीवन सुखद, सरस, स्नेहपूर्ण एवं सफल हो इसके लिए यह आवश्यक है कि पति व पत्नी के शारीरिक गुणों, स्वभाव, प्रकृति, विचारधारा, मनोवृति, मान्यताओं, आस्था तथा जीवनमूल्यों में समानता हो। भावी पति-पत्नी में सुखद तालमेल बना रहे, इसी उद्देश्य से विवाह से पूर्व इसका अनुमान लगाना आवश्यक है। इस हेतु ज्योतिष विज्ञान एक बहुत बड़ा संबल है। यह ज्योतिष विज्ञान ही है जो वर-वधू के भावी तालमेल का पूर्वानुमान विवाह से पूर्व ही लगा सकता है। यह विद्या हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की अनुपम देन है। इसी कारण विवाह से पूर्व वर-वधू के गुण व अवगुणों के तालमेल की जांच करने हेतु जन्मकुंडलियों के मिलान की व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। नवविवाहित वर-वधू का दाम्पत्य जीवन मधुर एवं सफल रहेगा अथवा कटु या असफल, इसी चिंता से दोनों ही पक्ष पीड़ित रहते हैं। इसलिए विवाह से पूर्व वर तथा कन्या की जन्मकुंडलियों के मिलान द्वारा भावी दाम्पत्य जीवन की शुभाशुभता का पूर्वानुमान लगाया जाता है। प्राचीन ऋषि-महाऋषियों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ मापदंड तय किए हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
1. दिन(तारा) कूट– यह मिलान वर-वधू के आयुर्दाय व स्वास्थ्य को दर्शाता है। पहला तारा जन्म, दूसरा सम्पत, तीसरा विपत, चौथा क्षेम, पाँचवा पातक, छठा साधक, सातवां वेध, आठवां मैत्र, और नवां अतिमित्र के नाम से जाना जाता है। 1,3,5,7 तारा अशुभ और 2,4,6,8,9 तारा शुभ होते हैं। उत्तर भारत में पहला तारा भी शुभ माना जाता है जबकि दक्षिण भारत में शुभ नहीं माना जाता है।
2. गण कूट– यह मिलान वर-वधू के जीवन में परस्पर स्वभाव, खुशियाँ व समृद्धि को दर्शाता है।
3. महेंद्र कूट– यह संतान के द्वारा भाग्य वृद्धि को दर्शाता है तथा दंपति को अच्छी उन्नति व आयुर्दाय प्रदान करता है। कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनें। गिनती के पश्चात् यदि 4,7,10,13,16,19,22 या 25 आता है तो यह शुभ माना जाता है।
4. स्त्री दीर्घ कूट- यह सभी प्रकार की समृद्धि और धन-संपति देता है। कन्या के नक्षत्र से गिनने पर वर का नक्षत्र 13 के बाद होना चाहिए। यदि राशि कूट और ग्रह मैत्री मिलान सही है तो इसकी उपेक्षा की जा सकती है।
5. योनि कूट– यह रति और शारीरिक आवश्यकता से संबंधित मिलान है जो एक-दूसरे के प्रति प्रेम और रति के रुझान को दर्शाता है। प्रत्येक नक्षत्र का एक पशुवत गुण होता है। इसका आधार ऐसे पशुओं की मानसिक आदतें और स्वभाव का एक जैसा होना और आपस में सामंजस्य होना है।
6. राशि कूट– यह मूल रूप से भकूट का ही विचार है, लेकिन उत्तर भारतीय पद्धति से कुछ भिन्नता है। वहां राशियों में 6-8, 5-9, 2-12 संबंध बने तो वर्जित है। परंतु वहां राशियों में 3-11, 4-10 को शुभाशुभ श्रेणी में रखा है। दक्षिण भारत पद्धति में इसका विचार इस प्रकार है-
7. ग्रह मैत्री(राशीश) कूट– यह संतति की संभावनाओं, मानसिक गुणों और एक-दूसरे के प्रति भावनाओं को दर्शाता है। यदि ग्रह मैत्री नही होती है तो दोनों कुंडलियों में चंद्रमा के नवांश स्वामियों से मैत्री का विचार करना चाहिए। यदि चन्द्रमा के नवांश स्वामी परस्पर मित्र हो तो यह दोष समाप्त हो जाता है।
8. वश्य कूट– यह दंपति के मध्य प्रेम व उत्कंठा तथा एक-दूसरे के प्रति आकर्षण और नियंत्रण को दर्शाता है। प्रत्येक राशि की वश्य राशियाँ इस प्रकार से है-
9. रज्जू कूट– यह वैवाहिक जीवन के काल का निर्णय करता है। वर-वधू के जन्म नक्षत्रों को एक ही रज्जू में नहीं होना चाहिए।
10. वेध कूट- नक्षत्रों के कुछ जोड़ों का मिलान निषेध है। ऐसे जोड़े हैं
किसी भी वर-वधू के नक्षत्रों का उपरोक्त जोड़ों में होना वर्जित है।
विशेष नोट– उपरोक्त मिलान मुख्यता नक्षत्र व राशि पर आधारित है। इसके साथ-साथ वर-वधू के विवाह से पूर्व उनके ग्रहों का परस्पर मिलान करना भी अत्यंत आवश्यक है।