नगुला चविथी परिचय
नाग पूजा (सर्प पूजा) अनुष्ठान करने के लिए नगुला चविथी को शुभ दिन माना जाता है। हिंदू माह ‘कार्तिक’ के दौरान अमावस्या (नया चंद्रमा) के बाद आने वाली चतुर्थी तिथि पर यह पर्व मनाया जाता है। नाग चतुर्थी के पश्चात् नाग पंचमी और नाग षष्ठी पर्व मनाए जाते हैं। नगुला चविथी के शुभ अवसर पर नाग देवताओं (सर्प देवताओं) की पूजा की जाती है। यह पर्व मुख्य रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा मनाया जाता है जो अपनी संतान के कल्याण हेतु पूजा-प्रार्थना करती हैं| इस दिवस पर महिलाएं ‘व्रत’ (उपवास) रखती हैं और सर्प देवता (नाग पूजा) की पूजा-अर्चना करके प्रार्थना करती हैं। नगुला चविथी पर्व के दौरान अष्टांग (आठ फन वाले कोबरा) की पूजा-अर्चना की जाती है| नाग देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी ‘वल्मीक’ या ‘बांबी’ (सांप का बिल) में ‘सर्प देवता’ को दूध, सूखे मेवे और कभी-कभी अंडों का भोग अर्पित किया जाता है|
इस दिन संपन्न होने वाले अनुष्ठान क्षेत्र और प्रदेश के अनुसार भिन्न हो सकते हैं लेकिन त्यौहार का सार एक जैसा होता है। नगुला चविथी पर्व को आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के अनेक हिस्सों में बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।
नगुला चविथी से संबंधित दंतकथा
हिंदू देव समूहों में अनेक देवता सर्पों से निकटता से जुड़े हुए हैं इसलिए हिंदू संस्कृति में सर्पों की पूजा अत्यधिक प्रासंगिक है। भगवान शिव को ‘नाग भूषण’ भी कहा जाता है क्योंकि उनके कंठ के चारों ओर एक सर्प लिपटा हुआ दिखाई देता है| जबकि भगवान विष्णु को ‘शेष थाल्पा साई’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि नाग देवता शैय्या के रूप में उनकी सेवा करते हैं। भगवान गणेश को ‘नाग यज्ञोपवीत’ और भगवान कुमार स्वामी को ‘नाग स्वरुप’ के रूप में भी जाना जाता है।
नगुला चविथी से संबंधित किवदंतियां हिंदू पौराणिक कथाओं से गहनता से जुड़ी हुई हैं| उनमें वर्णित है कि अमृत की खोज में देवताओं और राक्षसों द्वारा विशाल महासागर (समुद्र मंथन) के मंथन के दौरान एक सर्प को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम ‘हलाहल’ विष बाहर निकला जिसका संसार पर जबरदस्त नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता था लेकिन भगवान शिव ने इस विष का पान कर लिया जिसके फलस्वरूप उनका कंठ नीला हो गया| इसलिए उनका एक नाम ‘नीलकंठ’ है। हालांकि उस विष की कुछ बूंदें पृथ्वी पर बिखर गईं और तब से लोगों ने इस विष के बुरे प्रभावों से स्वयं को बचाने के लिए सर्पों की पूजा प्रारंभ की थी|
नगुला चविथी का महत्व
सर्पों की पूजा हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है और इसका अत्यधिक धार्मिक महत्व है। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से कृषि समुदाय में सांपों को अनेक पहलुओं में सहायक माना जाता है। सर्दियों के दौरान सांप अपने बिल से बाहर निकलते हैं और उन चूहों को खा जाते हैं जो फसलों को नष्ट करते हैं। सांप ताजे पानी में मौजूद हानिकारक सूक्ष्म जीवों को भी मार देते हैं।
इस प्रकार नगुला चविथी पर्व उन सर्पों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है जो फसलों के लिए मिट्टी को उपजाऊ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ज्योतिष में भी सांप को एक उच्च पद प्राप्त है क्योंकि ‘राहु’ ग्रह सर्प का प्रतिनिधित्व करता है। सर्प देवताओं की पूजा करने से ‘राहु’ ग्रह के दुष्प्रभावों को समाप्त किया जा सकता है|
सर्पों की पूजा करने की परंपरा मनुष्यों की प्रकृति के अनुरूप रहने की इच्छा को प्रदर्शित करती है। इसलिए सांपों और अन्य जानवरों के निवास की सुरक्षा के लिए वनों की पवित्रता को बनाए रखना चाहिए।
नगुला चविथी पर किए जाने वाले अनुष्ठान
अधिकांश हिंदू अनुष्ठानों की परंपरा को ध्यान में रखते हुए सुबह उठकर स्नान करना बहुत आवश्यक समझा जाता है। नगुला चविथी पर्व के शुभावसर पर भक्त प्रार्थना वेदी में नाग देवता की प्रतिमा स्थापित करके पूजा- अर्चना करते हैं। सर्प देवताओं को ‘प्रसाद’ का भोग लगाने के लिए बहुत से लोग सर्पों के बिल वाले स्थलों पर जाते हैं।
तिल के लड्डू, दाल से बने पकवान और चावल के आटे तथा गुड़ से बने मीठे पकवान सर्प देवता को भोग लगाने के लिए बनाए जाते हैं| इस दिन पुष्प, गाय के दूध, हल्दी, कुमकुम, केले, ताम्बूल और चावल के आटे द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है|
पूजा के उपरांत सर्प के बिल की परिक्रमा करना भी अनुष्ठानों का एक हिस्सा है इससे सर्प देवता का आशीर्वाद प्राप्त होता है|
नगुला चविथी पर्व के शुभ अवसर पर समस्त ‘नाग’ मंदिरों में प्रार्थना और अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता है जिसमें पास व दूरस्थ स्थलों से लोग सर्प देवता की पूजा करने के लिए आते हैं।