कृष्ण भगवान सभी हिंदू देवी देवताओं में सबसे अधिक पूजनीय और सबसे लोकप्रिय भगवान है। कृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में पूजे जाते हैं। वर्षों में कृष्ण के भक्ति पंथों का केंद्र बन गए, जिन्होंने सदियों से धार्मिक कविता, संगीत और चित्रकला का खजाना तैयार किया है। कृष्ण की पौराणिक कथाओं के मूल स्रोत महाकाव्य महाभारत और इसके समकालिक ग्रंथ और उपन्यास है। इन धार्मिक गं्रथों के माध्यम से हमें पता चलता है कि भगवान कृष्ण का जन्म यादव वंश में वासुदेव और देवकी के पुत्र के रूप में हुआ। भगवान श्री कृष्ण के जन्म से लेकर उनके देह त्याग करने तक उनके जीवन से जुड़ी हर कहानी दिलचस्प, रोमांचक और सीख देने वाली है। इस लेख में हम भगवान कृष्ण के जीवन के उन पहलुओं पर गौर करेंगे जो हम सामान्य तौर पर नहीं जानते।

अपनी युवा अवस्था में भगवान श्री कृष्ण ने जरासंध के प्रकोप से लोगों को बचाने और उनसी कई गुना बड़ी सेना से लडने के लिए समुद्र में एक द्वीप पर एक अभेद्य राजधानी द्वारका का निर्माण किया। कहा जाता है कि द्वारका के अंदर प्रवेष करने के सहस्त्र द्वार थे लेकिन वे सभी आपको शहर के अंदर प्रवेष नहीं देंगे। यही कारण रहा की जरासंध की कई गुना मजबूत और शक्तिषाली सेना भी द्वारका पर जीत हासिल नहीं कर सकी और हार गई। महाकाव्य महाभारत के अनुसार गुजरात के पश्चिमी बिंदु पर स्थित शहर द्वारक अब समुद्र में डूबा हुआ है। लेकिन कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने अपने योग की शक्ति से अपने सभी रिश्तेदारों और मूल निवासियों द्वारका के जलमग्न होने के पहले ही मौजूदा द्वारका में स्थानांतरित कर दिया था। द्वारका में उनका विवाह रुक्मिणी, फिर जाम्बवती और फिर सत्यभामा से हुआ।
भगवान कृष्ण को लेकर हमें कई बार 16000 रानियों से उनके विवाह की बात सुनने को मिलती है। भगवान श्री कृष्ण की अलौकिक लीलाओं के कारण आप इसे सामान्य मान सकते है। लेकिन कृष्ण की 16000 रानियों का सच यह है भगवान श्री कृष्ण ने प्रागज्योतिषपुर के राक्षस राजा ने इन 16,000 राजकुमारियों को बचाया था। जिनका अपहरण उन दुष्ट राक्षस ने कर लिया था। कृष्ण ने उन्हें मुक्त किया और उनसे विवाह किया क्योंकि विवाह के पहले किसी गैर पुरुष की देखरेख में रहने के कारण उन राजकुमारों के पास कहीं और जाने का स्थान नहीं था।
कई वर्षों तक, कृष्ण पांडव और कौरव राजाओं के साथ रहे जिन्होंने हस्तिनापुर पर शासन किया। जब पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध छिड़ने वाला था, कृष्ण को मध्यस्थता के लिए भेजा गया लेकिन वे असफल रहे। युद्ध अपरिहार्य हो गया, और कृष्ण ने कौरवों को अपनी सेना की पेशकश तो कौरवों ने भगवान श्री कृष्ण की सेना को चुना। वहीं पांडवों ने भगवान कृष्ण को चुना लेकिन इसके बावजूद भी भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में शस्त्र नहीं उठाने का प्रण लिया। वे युद्ध में अर्जुन के सारथी के रूप में पांडवों में शामिल होने के लिए सहमत हुए। महाभारत में वर्णित कुरुक्षेत्र का यह महायुद्ध लगभग 3000 ईसा पूर्व में लड़ा गया था। युद्ध के बीच में, कृष्ण ने अपना प्रसिद्ध उपदेश दिया, जिसने आगे चलकर भगवद गीता नीव डाली। इस उपदेश के माध्यम से उन्होंने निष्काम कर्म या बिना आसक्ति के कर्म के सिद्धांत को सामने रखा।
कुरूक्षेत्र के महायुद्ध के बाद, भगवान कृष्ण पुनः द्वारका लौट आए। पृथ्वी पर अपने अंतिम दिनों में उन्होंने अपने मित्र और शिष्य उद्धव को आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा दी, और बाद में अपना शरीर त्यागने के लिए वे एक बहेलिए का सहारा लिया। एक बार वन विहार के दौरान भगवान एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान साधना में लेटे हुए थे, अज्ञानता वष एक बहेलिए ने उनके पैरों की हलचल को शिकार समझ एक विष युक्त तीर उनके पैरों के पंजों पर चला दिया। इस तीर में मौजूद जहर को भगवान ने कारण बना अपना देह त्याग दिया। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण लगभग 125 सालों तक जीवित रहे। चाहे वह एक इंसान हो या एक ईश्वर, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि वह तीन सहस्राब्दियों से लाखों लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं।