वसंत नवरात्रि की परिभाषा- नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘नौ रातें’। इस पर्व के दौरान, शक्ति / देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। शाक्त संप्रदाय के अनुसार माँ आदि शक्ति की आराधना हेतु वसंत नवरात्रि का प्रारंभ चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से होता है। इसकी समाप्ति रामनवमी के साथ होती है। नवरात्रि में व्रत रखने से हमारे सभी जाने-अनजाने पाप समाप्त होते हैं और माँ आदिशक्ति की कृपा भी प्राप्त होती है।
देवी के नौ रूपों की पूजा- नवरात्रि में प्रत्येक दिन माँ के अलग अलग स्वरूपों की पूजा की जाती है। प्रत्येक तिथि का संबंध देवी के किस रूप से है तथा उन्हें भोग में क्या प्रिय है आदि समस्त जानकारी इस प्रकार है:-
1. माँ शैलपुत्री– माँ भगवती का यह प्रथम रूप है। प्रथमा/प्रतिपदा तिथि को इनका ही पूजन किया जाता है। पर्वतों के राजा हिमालय के यहाँ जन्म लेने से ही इनका नाम शैलपुत्री हुआ है| इनका वाहन वृषभ है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल का पुष्प है। भोग के रूप में इन्हें गाय का घी प्रिय है। इनका पूजन करने से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है, जिससे मनुष्य के तपोबल, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है।
2. माँ ब्रह्मचारिणी– माँ भगवती का द्वितीय रूप माँ ब्रह्मचारिणी का है। सच्चिदानन्दमय ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कराना जिनका स्वभाव हो वे ब्रह्मचारिणी हैं। इनका स्वरुप अत्यंत ज्योतिर्मय व भव्य है। इनके दाहिने हाथ में तप की माला और बायें हाथ में कमण्डल है। इन्हें भोग में शक्कर प्रिय है। इनके पूजन से स्वाधिष्ठान चक्र जाग्रत होता है।
3. माँ चन्द्रघंटा– तृतीया तिथि को माँ भगवती के चन्द्रघंटा रूप का पूजन किया जाता है। माँ चन्द्रघंटा का रूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। माँ के मस्तक पर घण्टे के आकार का अर्धचंद्र है इसलिए इनका नाम चन्द्रघंटा है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं जिनमें खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनको भोग के रूप में दूध प्रिय है। माँ चन्द्रघंटा की उपासना करने से मणिपुर चक्र जाग्रत होता है।
4. माँ कूष्माण्डा– चतुर्थी तिथि को माँ भगवती के कूष्माण्डा स्वरुप का पूजन किया जाता है। अपनी मंद हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण ही इनका नाम कूष्माण्डा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि जब सृष्टि का कोई स्वरुप नहीं था, चारों ओर अंधकार व्याप्त था, तब माँ कूष्माण्डा देवी ने अपने हास्य द्वारा ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इसलिए यही सृष्टि की आदिस्वरूपा एवं आदिशक्ति हैं। माँ कूष्माण्डा की आठ भुजाएं हैं, अतः ये अष्टभुजा के नाम से भी जानी जाती हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र व गदा हैं तथा आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनको भोग में मालपुआ प्रिय है। इनका जप व पूजा-अर्चना करने से अनाहत चक्र जाग्रत होता है।
5. माँ स्कन्दमाता– पंचमी तिथि को माँ भगवती के स्कन्दमाता स्वरूप का पूजन किया जाता है। स्कन्द कुमार यानि कार्तिकेय की माता होने के कारण इनका नाम स्कन्दमाता हुआ है। स्कन्दमाता का वाहन मयूर है। माँ भगवान स्कन्द के बालस्वरूप को अपने गोद में लिए हुए हैं। इनकी चार भुजाएं हैं जिसमें वे दाहिनी ओर की ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द कुमार को गोद में उठाए हुए हैं, दाहिनी ओर की निचली भुजा में कमल का पुष्प है। बायीं ओर की ऊपरी भुजा वर मुद्रा में है तथा नीचे वाली भुजा ऊपर को उठी हुई है, उसमें भी कमल का पुष्प है। माता कमल के आसन पर विराजमान हैं इसलिए इनको पद्मासनादेवी भी कहते हैं। इनका वाहन भी सिंह है तथा भोग के रूप में इन्हें केला प्रिय है। इनकी पूजा करने से विशुद्धि चक्र जाग्रत होता है, जिससे मनुष्य की समस्त इच्छाओं की पूर्ति होकर सुख-शांति की प्राप्ति होती है।
6. माँ कात्यायनी– षष्ठी तिथि को माँ भगवती के कात्यायनी स्वरुप का पूजन किया जाता है। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट होने के कारण महर्षि ने उन्हें अपनी पुत्री माना इसलिए इनका नाम कात्यायनी हुआ है। माँ कात्यायनी का स्वरुप अत्यंत भव्य व दिव्य है। इनकी चार भुजाएं हैं। दाहिनी ओर की ऊपर वाली भुजा अभय मुद्रा में तथा नीचे की भुजा वर मुद्रा में है। बायीं ओर की ऊपर वाली भुजा में तलवार तथा नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प सुशोभित है। माँ कात्यायनी का वाहन सिंह है। भोग के रूप में इन्हें शहद (मधु) प्रिय है। इनकी आराधना करने से आज्ञा चक्र जाग्रत होता है तथा रोग, शोक, संताप व भय से मुक्ति मिलती है।
7. माँ कालरात्रि– माँ भगवती की सातवीं शक्ति के रूप में माँ कालरात्रि का पूजन किया जाता है। असुरों को मारने वाले काल की स्वामिनी (विनाशिका) होने से इनका नाम कालरात्रि हुआ है। इनका स्वरुप अत्यंत भयंकर है परंतु माँ सदैव शुभ फल देती है। इसलिए इनका एक नाम शुभंकरी भी है। इनका स्वरुप भी इनके नाम के समान भयंकर काला है। इनकी चार भुजाएं हैं। दाहिनी ओर की ऊपर वाली भुजा अभय मुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा खाली है। बायीं ओर की ऊपर वाली भुजा में लोहे का काँटा तथा नीचे वाली भुजा में खड्ग है। इनका वाहन गधा (गर्दभ) है। इनको भोग के रूप में गुड़ प्रिय है। इनका पूजन करने से भानु चक्र जाग्रत होता है। इनके स्मरण मात्र से सब प्रकार के भय, ऊपरी बाधा, नजर दोष आदि दूर होते हैं।
8. माँ महागौरी– अष्टमी तिथि को माँ भगवती के महागौरी स्वरुप की पूजा की जाती है। जब माँ काली(माँ काली रूप) हो गई थीं तब उन्होंने महान तपस्या से पुनः गौर वर्ण प्राप्त किया था तभी से माँ का नाम महागौरी हुआ है। इनके मस्तक पर चन्द्र मुकुट है। इनकी चार भुजाएं हैं जिनमें क्रमशः शंख, चक्र, धनुषबाण तथा वर मुद्रा है। इनका वाहन बैल है तथा भोग में इन्हें हलवा प्रिय है। इनकी पूजा-अर्चना करने से सोम चक्र जाग्रत होता है जिससे मनुष्य को जीवन में आने वाले संकटों से मुक्ति मिलती है तथा आर्थिक लाभ प्राप्त होता है।
9. माँ सिद्धिदात्री– नवमी तिथि को माँ भगवती के सिद्धिदात्री स्वरूप की पूजा की जाती है। अपने भक्तों को सर्वसिद्धि प्रदान करने के कारण ही यह सिद्धिदात्री नाम से प्रसिद्ध हैं। इनकी चार भुजाएं हैं जिसमे दाहिनी ओर की ऊपर वाली भुजा में गदा तथा नीचे वाली भुजा में चक्र है। बायीं ओर की ऊपर वाली भुजा में शंख तथा नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। यह कमल पुष्प पर विराजमान हैं। इनको भोग के रूप में खीर प्रिय है। इनकी आराधना करने से निर्वाण चक्र जाग्रत होता है तथा मनुष्य को हर प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है।
नवरात्रि पूजा विधि– नवरात्रि में घट स्थापना का बहुत महत्त्व है। नवरात्रि की शुरुआत घट स्थापना से की जाती है। कलश को सुख समृद्धि, ऐश्वर्य देने वाला तथा मंगलकारी माना जाता है। कलश के मुख में भगवान विष्णु गले में रूद्र , मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में देवी शक्ति का निवास माना जाता है। घट स्थापना की विधि इस प्रकार है:-
सबसे पहले जौ बोने के लिए एक ऐसा पात्र लें जिसमे कलश रखने के बाद भी आस पास जगह रहे। यह पात्र मिट्टी की थाली जैसा कुछ हो तो श्रेष्ठ होता है। इस पात्र में जौ उगाने के लिए मिट्टी की एक परत बिछा दें। मिट्टी शुद्ध होनी चाहिए । पात्र के बीच में कलश रखने की जगह छोड़कर बीज डाल दें। फिर एक परत मिटटी की बिछा दें। एक बार फिर जौ डालें। फिर से मिट्टी की परत बिछाएं। अब इस पर जल का छिड़काव करें।
कलश तैयार करें। कलश पर स्वस्तिक बनायें। कलश के गले में मौली बांधें। अब कलश को थोड़े गंगा जल और शुद्ध जल से पूरा भर दें।
कलश में साबुत सुपारी , फूल डालें। कलश में सिक्का डालें। अब कलश में पत्ते डालें। कुछ पत्ते थोड़े बाहर दिखाई दें इस प्रकार लगाएँ। चारों तरफ पत्ते लगाकर ढ़क्कन लगा दें। इस ढ़क्कन में अक्षत यानि साबुत चावल भर दें।
नारियल तैयार करें। नारियल को लाल कपड़े में लपेट कर मौली बांध दें। इस नारियल को कलश पर रखें। नारियल का मुँह आपकी तरफ होना चाहिए। यदि नारियल का मुँह ऊपर की तरफ हो तो उसे रोग बढ़ाने वाला माना जाता है। नीचे की तरफ हो तो शत्रु बढ़ाने वाला मानते है , पूर्व की और हो तो धन को नष्ट करने वाला मानते है। नारियल का मुंह वह होता है जहाँ से वह पेड़ से जुड़ा होता है। अब यह कलश जौ उगाने के लिए तैयार किये गये पात्र के बीच में रख दें।
देवी माँ की चौकी की स्थापना तथा पूजा विधि-
इस प्रकार रोजाना देवी माँ का पूजन करें तथा जौ वाले पात्र में जल का हल्का छिड़काव करें। जल बहुत अधिक या कम ना छिड़के । जल इतना हो कि जौ अंकुरित हो सके। ये अंकुरित जौ शुभ माने जाते है। । यदि इनमे से किसी अंकुर का रंग सफ़ेद हो तो उसे बहुत अच्छा माना जाता है।
नवरात्रि के दिनों में बहुत से लोग आठ दिनों(प्रतिपदा से अष्टमी तिथि तक ) के लिए व्रत रखते हैं तथा केवल फलाहार पर ही आठों दिन रहते हैं। फलाहार का अर्थ है, फल एवं कुछ अन्य विशिष्ट सब्जियों से बना सात्विक आहार। फलाहार में सेंधा नमक का इस्तेमाल होता है। नवरात्रि के नौवें दिन भगवान राम के जन्म की रस्म और पूजा (रामनवमी) के बाद ही उपवास खोला जाता है. जो लोग आठ दिनों तक व्रत नहीं रखते, वे पहले और आख़िरी दिन(यानि केवल प्रतिपदा व अष्टमी तिथि को) उपवास रख लेते हैं। व्रत के दिनों में भूमि शयन करना शुभ माना जाता है।
नवरात्रि में कन्या पूजन- नवरात्रि में कन्या पूजन का बहुत महत्व है। महा अष्टमी या महा नवमी के दिन कन्या पूजन किया जाता है। कुछ लोग अष्टमी के दिन और कुछ नवमी के दिन कन्या पूजन करते है। पूजन के लिए दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की आयु तक की कन्या को चुना जाता है। दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की काली, सात वर्ष की चंडिका, आठ वर्ष की शांभवी, नौ वर्ष की दुर्गा तथा दस वर्ष की कन्या सुभद्रा के नाम से पूजी जाती है। ग्यारह वर्ष से ऊपर और एक वर्ष से कम आयु की कन्या का पूजन शास्त्रानुसार वर्जित माना गया है। कन्याओं का सम्मान तथा स्वागत करने के लिए उनके पैर धोए जाते हैं। पूजा के अंत में कन्याओं को उपहार के रूप में नए वस्त्र तथा दक्षिणा दी जाती है। प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार माँ दुर्गा जप, दान, यज्ञ आदि से इतना प्रसन्न नहीं होती, जितनी वह कन्या पूजन से होती हैं। तंत्र ग्रंथों के अनुसार कन्या पूजन से माँ दुर्गा बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाती है। कन्याओं को श्रद्धापूर्वक भोजन कराने से देवी आनंदित होती है और जहाँ कन्याओं का पूजन होता है, वहां भगवती का वास होता है। इसलिए नवरात्रि के दौरान कन्या पूजन करना अत्यंत श्रेष्ठ और पुण्य फलदायी माना गया है।
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