भारत में सदियों से किसी न किसी रूप में भांग, धतूरे और गांजे का सेवन किया जाता रहा है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार इन पौधों को पांच सबसे पवित्र पौधों के रूप में माना जाता है। इन पौधों को खुशी, मुक्ति और करुणा का एक समृद्ध स्रोत भी माना जाता है। वेदों के अनुसार गांजे का पौधा जड़ी-बूटियों के पांच साम्राज्यों में से एक है, जो चिंता से राहत देती है। गांजे में औषधीय गुण होते हैं और यह इसके पौधे से लिया जाता है। प्राचीन काल से ही इसका उपयोग धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कारों में किया जाता रहा है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भगवान शिव का भांग, धतूरा और गांजे से गहरा संबंध है। आइए जानें भगवान शिव के भांग, गांजा या चरस के सेवन के पीछे का कारण। इससे जुड़ी कहानियों के माध्यम से
भगवान शिव के द्वारा इन प्रकृतिक पौधों के नषे का एक संबंध समुद्र मंथन से जुड़ा है। समुद्र मंथन के दौरान, देवताओं और राक्षसों ने अमृत प्राप्त करने के लिए एक साथ समुद्र मंथन किया था। हालांकि, इस मंथन के उपोत्पादों में से एक हलाहल नामक विष भी था, जिसे ब्रह्मांड में सबसे घातक जहर माना जाता था। हलाहल से उठने वाला धुंआ देवताओं और राक्षसों दोनों को मारने में सक्षम था। उस समय देव-दानव सहित मानव जाति की रक्षा के लिए भगवान शिव ने इस विष को पी लिया लेकिन इस हलाहल के प्रकोप से भगवान षिव का शरीर बेहद गर्म हो गया और इसे ठंडा करने के लिए भांग दी गई।
कुछ किंवदंतियां यह भी दावा करती हैं कि समुद्र मंथन प्रकरण के बाद भगवान शिव गोसाईकुंड झील क्षेत्र से होते हुए कैलाश पर्वत पर चले गए। इस दौरान शिव का सिर बिल्व पत्र से ढका हुआ था ऐसा उन्हे ठंडा करने के लिए किया जा रहा था।
इसी के साथ गांजे को भी शीतलक माना जाता है। यह शरीर के चयापचय को कम करता है और इससे शरीर का समग्र तापमान नीचे आ जाता है। भांग, धतूरा और गांजा तीनों ही वस्तुएं शरीर के तापमान को कम करने का कार्य करती है इसी लिए भगवान षिव को इन वस्तुओं का भोग लगाया जाता है।
एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार शिव की अपने परिवार से तीखी बहस हो गई। वह भटकते हुए एक खेत में चले गये, जहां वह भांग के पौधे के नीचे सो गये। जब वह उठे तो उन्हे भूख लगी और उन्होंने भांग का कुछ हिस्सा खा लिया। इसके सेवन के बाद, शिव को तुरंत ताजगी का अहसास हुआ।