वैशाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। यह सनातनधर्मियों का प्रधान त्यौहार है। इस दिन किया हुआ जप, तप, यज्ञ व दान अक्षय फलदायक होता है इसलिए इस पर्व को अक्षय तृतीया या आखा तीज के नाम से जाना जाता है। इस वर्ष अक्षय तृतीया 2017 में 28 अप्रैल को मनाई जाएगी।
अक्षय तृतीया से संबंधित मुहूर्त की जानकारी-
वैशाख मास में शुक्लपक्ष की तृतीया अगर दिन के पूर्वाह्न (प्रथमार्ध) में हो तो उस दिन यह त्यौहार मनाया जाता है।
यदि तृतीया तिथि लगातार दो दिन पूर्वाह्न में रहे तो अगले दिन यह पर्व मनाया जाता है, हालाँकि कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि यह पर्व अगले दिन तभी मनाया जायेगा जब यह तिथि सूर्योदय से तीन मुहूर्त तक या इससे अधिक समय तक रहे।
तृतीया तिथि में यदि सोमवार या बुधवार के साथ रोहिणी नक्षत्र भी पड़ जाए तो बहुत श्रेष्ठ माना जाता है।
अक्षय तृतीय का महत्व-
पुराणों के अनुसार इसी दिन से त्रेतायुग का आरंभ हुआ था तथा जो व्यक्ति एक भी अक्षय तृतीया का व्रत कर लेता है, वह सब तीर्थों का फल पा जाता है।
अक्षय तृतीया के दिन स्नान, जप, तप, यज्ञ, स्वाध्याय, पितृतर्पण, और दान, जो कुछ भी किया जाता है उसका अनंत गुना फल मनुष्य को प्राप्त होता है।
इस पर्व पर पितृश्राद्ध करने का विधान भी है। इस दिन मृत पितरों को तिल व जल से तर्पण और पिंडदान भी इसी विश्वास के साथ किया जाता है कि उसका फल अक्षय होगा।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह पर्व एक स्वयं सिद्ध मुहूर्त भी है। बहुत से शुभ व पूजनीय कार्य इसी दिन आरंभ किए जाते हैं, जिनसे सुख, समृद्धि और सफलता की प्राप्ति होती है। इसलिए नए व्यवसाय, भूमि का क्रय, भवन, संस्था का उद्घाटन, विवाह, हवन आदि भी इस तिथि को किए जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि जो मनुष्य इस दिन गंगा स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
इसी दिन श्री बद्रीनारायण जी के पट(द्वार) भी खुलते हैं।
श्री परशुराम जी तथा भगवान हयग्रीव का अवतरण भी इसी दिन हुआ था।
यह पर्व दान प्रधान है। जो व्यक्ति इस दिन जल से भरा कलश, पंखा, खड़ाऊ, छाता, गौ, तिल, अन्न, सत्तू आदि का दान करता है, तो उसे अखंड पुण्य की प्राप्ति होती है।
अक्षय तृतीया से संबंधित पौराणिक कथा-
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में किसी नगर में एक बनिया (वैश्य) रहता था। वह सदाचारी तथा देवताओं व ब्राह्मणों का भक्त था। इस पर्व पर किए जाने वाले व्रत की महिमा सुनने के बाद उसने अक्षय तृतीया के आने पर गंगाजी में जाकर स्नान किया तथा भक्तिभाव से देवताओं का पूजन करके व्रत धारण रखा। उसने सोने, अन्न तथा वस्त्रों का दान ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया। अनेक बीमारियों से पीड़ित होने तथा बूढा होने के बावजूद भी उसने व्रत को पूर्ण श्रद्धा व विश्वास से पूर्ण किया। व्रत के प्रताप से यही बनिया अपने अगले जन्म में कुशावतीपुरी नामक नगर का राजा बना। उसने अपनी संपन्नता के बल पर बड़े-बड़े यज्ञ पूर्ण किए। उसने अनेक दीन-दुखियों को धन, गौदान, स्वर्ण दान देकर संतुष्ट किया परंतु फिर भी उसका वैभव कभी समाप्त नही हुआ। अक्षय तृतीया को उसके द्वारा किए गए श्रद्धापूर्वक व्रत तथा दान का ही यह सब प्रभाव था। इसलिए हिन्दू धर्म में इस व्रत का बड़ा माहात्म्य है।
अक्षय तृतीया पर पूजन विधि-
व्रती को इस दिन प्रातःकाल स्नानादि कर्मों से निवृत होकर पीले वस्त्र धारण करने चाहिए।
इस दिन उपवास करके भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है।
अपने घर के मंदिर में विष्णु जी को गंगाजल से शुद्ध करके तुलसी, पीले फूलों की माला या पीले पुष्प अर्पित करें। फिर धूप-अगरबत्ती, ज्योत जलाकर पीले आसन पर बैठकर विष्णु जी से सम्बंधित पाठ (विष्णु सहस्त्रनाम, विष्णु चालीसा) पढ़ने के बाद अंत में विष्णु जी की आरती पढ़ें।
विधि-विधानानुसार भगवान का पूजन तुलसीदल चढ़ाकर धूप-दीप, अक्षत, पुष्प आदि से करने के पश्चात भीगे हुए चने की दाल का भोग लगाएं। इसमें मिश्री और तुलसीदल भी मिला लें। फिर भक्तों में प्रसाद का वितरण करें।
पौराणिक धर्मग्रंथों के अनुसार इस दिन परशुराम व हयग्रीव अवतार हुए थे। इसलिए मान्यतानुसार कुछ लोग परशुराम व हयग्रीव जी के लिए जौ या गेहूँ का सत्तू, कोमल ककड़ी व भीगी चने की दाल भोग के रूप में अर्पित करते हैं।
साथ ही इस दिन विष्णु जी के नाम से गरीबों को खिलाना या दान देना अत्यंत पुण्य-फलदायी होता है।
इस दिन जौ के दान का विशेष माहात्म्य बताया गया है, क्योंकि सभी धान्यों का राजा जौ को माना जाता है।
इस पर्व पर चीनी या गुड़ के साथ सत्तू के दान और सेवन का भी विधान है।
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