भगवान शिव का परिचय– भारतीय अध्यात्म के सर्वाधिक प्रसिद्ध त्रिदेवों में भगवान शिव भी एक हैं, जहाँ सृष्टि की उत्पति का कार्य ब्रह्माजी द्वारा संचालित होता है और विष्णुजी पालन पोषण करते हैं, वहीँ भगवान शिव संहार व्यवस्था देखते हैं। मान्यता है कि समस्त देवताओं में सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवता शिवजी ही हैं। इसलिए उनका एक नाम “आशुतोष” भी है। अन्य देवताओं के चरित्र में कहीं न कहीं वैभव-विलास, सत्ता-लोभ और कूटनीति की झलक मिलती है, किन्तु शिवजी त्याग, तपस्या, सादगी व सरलता के साक्षात् स्वरूप हैं। अन्य देवताओं ने जिसे तुच्छ अथवा असुविधाजनक मानकर अस्वीकार कर दिया, शिवजी ने उसी को परम प्रसन्न भाव से अपना लिया। अन्य देवता वैभव-विलास से युक्त भवनों में निवास करते हैं, रक्ताम्बर धारण करते हैं। उनके आभूषण, पात्र, गृह-सज्जा, दास-दासी सब सुसज्जित, वैभव-प्रदर्शक और भौतिक सुख-सुविधाओं से पूर्ण हैं। परंतु भगवान शिव को इन बातों में कोई रूचि नहीं है। वे परम वैरागी, महान योगी, ईर्ष्या-द्वेष, राग-शोक से सर्वथा मुक्त रहते हुए अपने भक्तों का कल्याण करते रहते हैं। “शिव” शब्द का अर्थ ही शुभ व कल्याणकारी है। वे शमशानवासी हैं हिमालय के निर्जन पर्वतों में उनका निवास माना गया है। इन्हें विध्वंस का देव भी कहा जाता है किन्तु समस्त देवों में वह सबसे भोले भी हैं, इतने भोले कि साधक द्वारा सामान्य पूजा-अर्चना करने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। इसी कारण से इनको भोले भण्डारी भी कहा जाता है। अनेक बार वे अपने इस भोलेपन के कारण स्वयं भी समस्याओं में घिर जाते हैं। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है- भस्मासुर दैत्य ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की। शिवजी उसकी तपस्या व भक्ति से प्रसन्न हो गए और वर मांगने को कहा। भस्मासुर ने वरदान माँगा कि जिस किसी के सिर पर वह अपना हाथ रखे, वह तत्काल भस्म हो जाए। भगवान शिव ने बिना विचार किए तथास्तु कह दिया। तब भस्मासुर भगवान शिव के सिर पर ही हाथ रखने के लिए तत्पर हो गया। इससे भयभीत होकर शिवजी भागने लगे और भगवान विष्णुजी के समक्ष पहुंचे। भस्मासुर भी वहीँ पहुँच गया। विष्णुजी ने स्थिति को भाँप लिया और चतुराई दिखाते हुए भस्मासुर से कहा कि पहले यह तो देख ले कि शिवजी का वरदान सत्य है अथवा नहीं? इस पर भस्मासुर ने पूछा की इसका पता कैसे चले? विष्णुजी ने कहा कि अपने सिर पर हाथ रखकर देख लो। भस्मासुर ने बिना सोच-विचार किए अपना हाथ अपने ही सिर पर रख लिया और तत्काल भस्म हो गया। इस प्रकार भगवान शिव का भोलापन अनेक अवसरों पर दिखाई देता है। भगवान शिव को मृत्युंजय भी कहा जाता है अर्थात मृत्यु को जीतने वाले देवता। इनकी पूजा-अर्चना तथा महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने से निश्चित मृत्यु की तरफ अग्रसर व्यक्ति भी नया जीवन प्राप्त कर सकता है। महाप्रतापी रावण भी भगवान शिव का परम भक्त था। उसने भगवान शिव की कृपा से असंख्य शक्तियाँ अर्जित कर ली थी। ऐसी भी मान्यता है कि भगवान विष्णु तथा भगवान शिव परस्पर एक-दूसरे को अपना आराध्य इष्टदेव मानते हैं यही कारण है कि भगवान राम(विष्णु अवतार) की सहायता करने के उद्देश्य से भगवान शिव ने हनुमान जी का अवतार ग्रहण किया था।
शिवपूजन विधि– भगवान शिव त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से एक हैं। इन्हें अत्यंत शीघ्र प्रसन्न होने वाला देव माना गया है। इनके तांडव नृत्य से एक तरफ जहाँ तीनों लोक काँप उठते हैं, वहीँ इनके पूजन से साक्षात् मृत्यु मुख की तरफ जाने वाले को भी नया जीवन प्राप्त होता है। शिवजी के विशेष दिवस महाशिवरात्रि के अतिरिक्त संपूर्ण श्रावण मास, प्रदोष काल तथा सोमवार माने गए हैं। परंतु अगर आप भगवान शिव की सामान्य पूजा अपने घर पर करना चाहते हैं तो वह भी कर सकते हैं। यदि किसी कारणवश आप नियमित रूप से यह पूजा नहीं कर पाते हैं तो सप्ताह के प्रत्येक सोमवार अथवा शुक्लपक्ष के प्रथम सोमवार अथवा प्रदोष काल के समय भी कर सकते हैं। शिव पूजन की विधि निम्नलिखित है:
भगवान शिव की पूजा के रूप में शिवलिंग की ही पूजा प्रधान रूप से की जाती है इसके लिए आप सर्वप्रथम एक पारद शिवलिंग की व्यवस्था करें। यदि पारद से बना शिवलिंग न मिले तो अन्य किसी शुद्ध धातु से बने शिवलिंग का प्रयोग भी किया जा सकता है। पूजन प्रारंभ करने से पूर्व इस शिवलिंग को गंगाजल से शुद्ध कर लें।
अब स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध श्वेत वस्त्रों को धारण करके पूर्वाभिमुख होकर कुशा अथवा ऊनी आसान पर बैठे।
अपने सामने के स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर लें।
अब उस शुद्ध किए हुए स्थान पर एक लकड़ी की चौकी को रखते हुए उस पर शुद्ध सफ़ेद अथवा पीला वस्त्र बिछाएं।
इसके उपरांत वहां पर एक ऊँचे किनारे वाली चौड़ी थाली पर अथवा कोई ऐसा बड़ा पात्र रख दें जिसमें जल एकत्र हो सके।
अब पारद शिवलिंग को इस थाली या पात्र पर स्थान दें।
धूप दीप प्रज्जवलित करके इस पारद शिवलिंग को शुद्ध जल अथवा दूध से स्नान कराएं। इसे जल अथवा दुग्धाभिषेक भी कहते हैं।
स्नान कराने के पश्चात इस पारद शिवलिंग पर सामर्थ्य अनुसार बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प, आक, दूर्वा, कनेर पुष्प, तुलसीदल आदि अर्पित करें।
अब आप जो भी कार्यसिद्धि चाहते हैं, उसके लिए भगवान शिव से मानसिक रूप से निवेदन करें। यह पूजा बिना किसी कामना के निष्काम भाव से भी की जा सकती है।
तत्पश्चात भगवान गणेश जी के साथ माँ पार्वती तथा भगवान शिव का पूजन पंचोपचार अथवा षोडशोपचार जैसा भी सामर्थ्य हो उसके अनुसार करें।
पूजन के दौरान भगवान शिव के रुद्राष्टाध्यायी अथवा शिव चालीसा का पाठ अपने सामर्थ्यानुसार अवश्य करें।
इसके उपरांत अगर आप भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्र “ॐ नमः शिवाय” का 1, 3, 5 अथवा 11 माला जाप कर सकें तो अति उत्तम है।
पूजन की समाप्ति के उपरांत भगवान शिव की आरती करें।
नोट:- कदम्ब, केतकी, केवड़ा अदि पुष्प भगवान शिव पर चढ़ाना शास्त्रानुसार वर्जित है।
भगवान शिव से जुड़े कुछ विशेष तथ्य:- शिवजी से जुड़े कुछ विशेष तथ्य निम्नलिखित हैं-
श्रावण मास– भगवान शिवजी की प्रसन्नता हेतु श्रावण मास में किया गया पूजन विशेष सिद्धिदायक माना जाता है। पूरा श्रावण मास शिव-पूजन के लिए अति उत्तम होता है। परंतु प्रदोष व सोमवार को रुद्राभिषेक करना विशेष लाभप्रद है। सोमवार को शिवलिंग पर रुद्राभिषेक करने की प्रक्रिया सर्वत्र प्रचलित है। विशेषकर चंद्र ग्रह जनित दोषों का परिहार इस पूजन से संभव है। श्रावण मास के प्रथम सोमवार से पूजन प्रारंभ करना चाहिए। शिव पूजन में गणपति, उमा(माँ पार्वती), नंदीश्वर, कार्तिकेय आदि सभी का पूजन करना बहुत शुभफलदायी होता है।
मंगला गौरी व्रत– श्रावण मास में प्रत्येक मंगलवार को मंगला गौरी जी का सौभाग्यवर्धक व्रत किया जाता है। इस व्रत की अधिष्ठात्री देवी माँ पार्वती (गौरी) जी हैं। सौभाग्यवती स्त्री को दाम्पत्य सुख के लिए तथा कुंवारी कन्याओं को उत्तम वर प्राप्ति के लिए यह व्रत करना बहुत शुभ फलदायक होता है।
नाग पंचमी– श्रावण शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी के रूप में जाना जाता है। सर्प शेष नाग के वंशज हैं जो अवतार माने जाते हैं। सर्प हमारे पितरों के भी प्रतीक हैं अतः नाग पंचमी को शिवपूजन के साथ-साथ सर्पों को दुग्ध भेंट करना हमारे अनिष्टों व कष्टों का निवारण करता है।
महाशिवरात्रि व्रत– फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहा जाता है। यह भगवान शिव की आराधना व पूजा-अर्चना करने के लिए सबसे प्रमुख दिन माना जाता है।
प्रदोष व्रत– प्रदोष का अर्थ रात्रि का शुभारंभ होता है। सूर्यास्त होने के बाद जब संध्याकाल होता है तो रात्रि के प्रारंभ होने की पूर्वबेला को ही प्रदोष कहते हैं। इसको सरल भाषा में यह भी कह सकते हैं कि संध्याकाल और रात्रिकाल का मिलन ही प्रदोष है। प्रत्येक मास की त्रयोदशी तिथि को यह व्रत रखा जाता है इस व्रत को कोई भी कर सकता है परंतु अधिकांशतः यह व्रत स्त्रियां ही अधिक करती हैं। त्रयोदशी तिथि को जो भी दिन होता है, उसी दिन के नामानुसार प्रदोष व्रत मानते हैं। शास्त्रानुसार सोम प्रदोष, रवि प्रदोष व शनि प्रदोष व्रत को अत्यंत श्रेष्ठ तथा अधिक पुण्य फलदायी माना जाता है। इस व्रत के देव भगवान शिव ही हैं।
शिवजी और ग्रह– चंद्रग्रह दोष के निवारण हेतु तथा मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए भगवान शिव की पूजा-स्तुति की विशेष मान्यता है। शनि जी के गुरु होने के नाते शिव भक्तों पर शनिदेव अपनी विशेष कृपा दृष्टि रखते हैं तथा शनि ग्रह के दोषों का शमन भी होता है। राहु-केतु की कुछ विशेष भाव स्थिति के कारण काल-सर्प योग बनता है। जिसके काफी नकारात्मक असर बताएं जाते हैं। इस दोष का निवारण करने के लिए भी शिवपूजन करना बहुत शुभ होता है।
रुद्राक्ष व भस्म– शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के भक्तों को शिवपूजन के समय रुद्राक्ष व भस्म अवश्य धारण करनी चाहिए। ऐसा करने से भगवान शिव साधक पर अतिशीघ्र प्रसन्न होते हैं।
परिक्रमा– शास्त्रानुसार भगवान शिव के मंदिर की आधी परिक्रमा करनी चाहिए।
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